।। शून्य।।
पूर्णता में शून्य है, शून्यता में पूर्ण है।
पूर्णता ही शून्य है, शून्यता ही पूर्ण है।
पूर्ण करके शून्यता को, शून्यता का भाव है।
शून्य करके पूर्णता को, पूर्णता का भाव है।
भाव का आभाव है, तब पूर्ण-शून्य सम-भाव है।
वेदों में शून्य का प्रयोग उपलब्धता को प्रमाणित करने के लिए सर्वप्रथम ऋग्वेद के आठवें मंडल के सतहत्तरवें सुक्त के तीसरे श्लोक से प्राप्त होता है जिसके अनुसार " आकाश या अवकाश से परिपूर्ण गोल छिद्र के लिए "ख" का प्रयोग प्राप्त है। "
खे अराँ इवा खेदया
(ऋग्वेद — 8 / 77 / 3)
पुनः अथर्ववेद में चौदहवें मंडल के प्रथम तथा द्वितीय श्लोक में किसी भी अनुपलब्ध वस्तु को चाहने वाले के लिए "शून्यैषी" का प्रयोग किया गया है तथा उन्नीसवें मंडल के बाइसवें श्लोक में भी शून्य की उपलब्धता प्रमाणित होती है
शून्यैषी निर्ऋते याजगन्धोत्तिष्ठराते प्रपत मेह रंस्थाः।
( अथर्ववेद — 14 / 2 / 19 )
ॐ क्षुद्रेभ्यः स्वाहा।।
( अथर्ववेद — 19 /22 / 6)
खे रवस्य खे खेअनसः युगस्य शतफलो ।
( अथर्ववेद —14 / 1 / 41)
यजुर्वेद में...
ॐ खं ब्रह्म...
( अध्याय 40 / 17)
अर्थात :-
प्रणवाक्षर ॐ एवं ख दोनों ही ब्रह्म वाचक हैं....
ख का अर्थ अंतरिक्ष एवं शून्य होता है। जिसमें भी अभाव या खाली के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया गया है।
महाभारत के बाद नागार्जुन :-
महान दार्शनिक नागार्जुन ने बौद्ध दर्शन के शून्यवाद नामक संप्रदाय में एक विशेष परिभाषिक अर्थ में इसका प्रयोग हुआ —
शून्यता सर्वदृष्टीनां प्रोक्ता निस्सरणं जिनैः ।
( मध्यमक शास्त्र 13 / 8)
अर्थात :-
शून्यता को सभी दृष्टियों में सर्वश्रेष्ठ बताया है।
भारत के सर्वप्रथम तथा सर्वश्रेष्ठ पाणिनी के व्याकरण के अनुसार यह शब्द सूजने अर्थ वाली श्वि धातु से भूतकाल में क्त प्रत्यय होकर निर्मित होता है। वास्तव में उस अण्ड के इस सूजे हुए खाली स्थान का नाम ही शून्य अथवा आकाश है।
तत्पश्चात उपनिषद जो कि साहित्य-शास्त्र में भारत तथा भारतीयता का अद्भुत दर्शन प्राप्त है में शून्य के लिए एक सुन्दर मंत्र —
ॐपूर्णमद पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
—( बृहदारण्यक उपनिषद 5 / 1 / 1)
—(इशावास्योपनिषद )
अर्थात :-
—यह एक ऐसा पूर्ण है जिससे पूर्ण में से निकाल लेने पर भी पूर्ण ही बच जाता है।
—उपरोक्त शांति मंत्र मात्र अध्यात्मिक वर्णन नहीं है, अपितु इसमें अत्यंत महत्वपूर्ण गणितीय संकेत छिपा है, जो समग्र गणितशास्त्र का आधार बना।
जो वैशिष्ट्य पूर्ण के वर्णन में है वही वैशिष्ट्य शून्य व अनंत में है। शून्य में शून्य जोड़ने या घटाने पर शून्य ही रहता है। यही बात अनंत की भी है।
श्रीमद्भागवत महापुराण के एक रोचक श्लोक में दोनों अर्थों वाले शून्य का एक साथ प्रयोग देखने को मिलता है —
यत्तद् ब्रह्म परं सूक्षम् अशून्यम् शून्यकल्पितम् ।
अर्थात :-
वह परम सूक्ष्म ब्रह्म शून्य नहीं है, फिर भी शून्य के रुप में प्रकल्पित है। यहाँ पहले शून्य का अर्थ अभाव तथा तथा दुसरे शून्य का अर्थ अनंत है। इस प्रकार 'वह ब्रह्म शून्य या अभावस्वरुप नहीं, फिर भी शून्य या अनंतस्वरुप है', यह इस श्लोक का सुक्ष्म अर्थ है।
गोस्वामी तुलसीदास जी
द्वारा रचित रामचरित मानस के बालकाण्ड में शून्य के समवर्ती भाव दर्शाया है :-
आदि अंत कोउ जासु न पावा,
मति अनुमानि निगम असगावा।।
अर्थात :-
जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं जान पाया वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार गाया है —
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना,
कर बिनु करम करइ बिधि नाना।
आनन रहित सकल रस भोगी,
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
अर्थात :-
वह (ब्रह्म) बिना पैर के ही चलता है, बिना कान के ही सुनता है, बिना हाथ के ही नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के ही बहुत योग्य वक्ता है।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा,
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ।
असि सब भाँति अलौकिक करनी,
महिमा जासु जाइ नहीं बरनी।।
अर्थात :-
वह बिना शरीर (त्वचा) के ही स्पर्श करता है, बिना आँख के ही देखता है और बिना नाक के ही सब प्रकार के गन्धों को ग्रहण करता है उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से एसी अलौकिक है का वर्णन नहीं किया जा सकता है।
जिस तरह ब्रह्म की महिमा कही नहीं जा सकती उसी तरह गणित में शून्य की महिमा भी कही (वर्णन) नहीं जा सकती है।
आधुनिक गणितज्ञ ने भी शून्य के विषय में भारतीय ऋषि-मुनियों के अन्वेषण को सराहणीय बताया है :-
प्रो. जी. पी. हाल्स्टेड
अपनी पुस्तक "गणित की नींव तथा प्रक्रियाएं" के पृष्ठ - 20 पर कहते हैं — "शून्य के संकेत के आविष्कार की महत्ता कभी बखानी नहीं जा सकती। " कुछ नहीं" को न केवल एक नाम तथा सत्ता देना वरन् एक शक्ति देना हिन्दू जाती का लक्षण है, जिनकी यह उपज है। यह निर्वाण को डायनमो की शक्ति देने के समान है। अन्य कोई भी गणितीय आविष्कार बुद्धिमत्ता तथा शक्ति के सामान्य विकास के लिए इससे अधिक प्रभावशाली नहीं हुआ। "
बी. बी. दत्ता ने
इसी संदर्भ में अपने प्रबंध में " संख्याओं को व्यक्त करने की विधि " ( इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, अंक - 3, पृष्ठ 530 - 540) में कहा है —" हिन्दुओं ने दाशमिक प्रणाली बहुत पहले अपना ली थी। किसी भी अन्य देश की गणितीय अंकों की भाषा प्राचीन भारत के समान वैज्ञानिक तथा पूर्णता को नहीं प्राप्त कर सकी थी। उन्हें किसी भी संख्या को केवल दस बिंबों की सहायता से सरलता तथा सुन्दरतापूर्वक व्यक्त करने में सफलता मिली। हिन्दू संख्या अंकन पद्धति की इसी सुन्दरता ने विश्व में सभ्य समाज को आकर्षित किया तथा उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। "
गणितशास्त्र में शून्य —
महावीर आदि विद्वानों ने आकाश के पर्यायवाचक शब्दों को शून्य का पर्याय निरूपित किया है।
अाकाशं गगनं शून्यमम्बरम् खं नभो वियत् ।
—( गणितसार संग्रह)
सर्वप्रथम 628 ई. के महान गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने गणितीय संक्रियाओं द्वारा इस प्रथम अभावरुप शून्य को उपलब्ध करने का यह प्रकार बताया है —
धनयोर्धनमृणमृणयोर्धनर्णयोरन्तरं समैक्यं खम् ।
(ब्रह्मस्फूट-सिद्धान्त 18 / 30)
अर्थात :-
दो समान धन संख्याओं में से एक धन संख्या का अन्तर, दो समान ऋण संख्याओं में से एक ऋण संख्या का अन्तर तथा क्रमशः धन, ऋण चिह्न वाली दो समान संख्याओं के योग का परिणाम "ख" अथवा शून्य होता है।
+5 — (+5) = 0
(—5) — (—5) = 0
+5 + ( — 5) = 0
श्रीधराचार्य ने गुणन की संक्रियाओं के द्वारा इस प्रकार के शून्य को प्राप्त करने का यह उपाय बताया है —
खस्य गुणनादिके खं संगुणने खेन च खमेव ।
( त्रिशतिका — सूत्र - 8)
अर्थात :-
शून्य को किसी राशि से गुणा इत्यादि करने पर या शून्य से किसी राशि को गुणित करने पर परिणाम शून्य ही होता है।
0 × 5 = 0 , 5 × 0 = 0
भास्कराचार्य ने अलग अलग शब्दों में यही तथ्य प्रकट किया है —
खहारो भवेत् खेन भक्तश्च राशिः ।
( भास्करीय बीज गणित, श्लोक - 3)
खभाजितो राशि खहरः स्यात्।
( लीलावती, शून्य परिकर्म, श्लोक - 3)
अर्थात :-
ख या शून्य से विभाजित राशि खहर या अनंत या परममहान होती है। इस प्रकार यहाँ अनंत को खहर यह अन्वर्थ परिभाषित नाम दिया है।
—ग्रीक भाषा में शून्य के लिए " केन्योस् (Kenyos)" शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है यही शून्य अरबी भाषा में " सिफ्र" शब्द के " खाली" अर्थ के लिए अनुवाद को प्रयोग में लाया गया। यही सिफ्र अंग्रेजी में जीरो (zero) शब्द के रुप में विकसित है।
कोई भी व्यक्ति शून्य के आविष्कार पर आश्चर्य चकित होंगे ही क्योंकि संख्या लेखन में जिस स्थान पर "कुछ नहीं" लिखना है तब उस स्थान पर बिना कुछ लिखे संख्या लिख पाना कैसे संभव होगा? जैसे - एक सौ एक = 1 रिक्त स्थान 1 जिसमें दहाई का स्थान रिक्त है। यदि रिक्त स्थान पर कुछ ना लिखें तो यह संख्या एक सौ एक नहीं होगी वल्कि ग्यारह हो जायेगी। अर्थात दहाई के स्थान पर कुछ तो लिखना पड़ेगा। गणितज्ञों के लिए यही सबसे बड़ी कठिनाई थी कि जहाँ "कुछ नहीं" लिखना है वहाँ कुछ कैसे लिखा जाए ?
दुनिया के सामने आने वाले इस कठिनाई को हमारे गणितज्ञ ऋषि-मुनियों ने शून्य का आविष्कार कर हल कर दिया। "कुछ नहीं" के लिए "शून्य" पाकर दुनिया के गणितज्ञ हर्षित तथा आश्चर्यचकित भी हुए और इस आविष्कार के लिए उन्होंने भारतीय मनीषियों की मुक्त कंठ से प्रशंसा भी की।
सधन्यवाद
।। मानस-गणित (Vedic- Ganit) ।।
(Person after Perfection becomes Personality)
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