।। मेकेनिक्स एवं यंत्र विज्ञान।।
महान महाऋषि "कणाद" ( 600 ई. पू.) ने अपने वैशेषिक दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ Motion से लिया है।
आपके अनुसार गति के पाँच प्रकार हैं ;
(I) उत्क्षेपण (Upward motion)
(II) अवक्षेपण (Downward motion)
(III) आकुञ्चन (Motion due to the release of tensile stress)
(IV) प्रसारण (Shearing motion)
(V) गमन General type of motion)
विभिन्न कर्म या motion को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया गया है
(1) नोदन के कारण - लगातार दबाव
(2) प्रयत्न के कारण - जैसे हाथ हिलाना
(3) गुरुत्व के कारण - कोई वस्तु नीचे गिरती है
(4)द्रवत्व के कारण - सुक्ष्म कणों का प्रवाह
गति के नियम (Law of motion) :-
अब हम आपके द्वारा दिए गए "गति के नियम" को देखते हैं।
प्रथम नियम :- वेगः निमित्तविशेषात् कर्मणो जायते ।
(The change of motion is due to impressed force.)
द्वितीय नियम :- वेगः निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियत्दिक् क्रिया प्रबन्ध हेतुः।
(The change of motion is proportional to the motive force impressed and is made in the direction of the right line in which the force is impressed.)
तृतीय नियम :- वेगः संयोगविशेषाविरोधी।
(To every action there is always an equal and opposite reaction.)
स्थिति स्थापकता (Elastic force) :-
Elasticity वास्तव में किसी पदार्थ के उस गुण को दिया गया नाम है, जिसके कारण छड़ें-प्लेटें आदि कंपन करते हैं और ध्वनि भी निकलती है। वैशेषिक दर्शनकार इसे जानते थे। उदयन की "न्याय कारिकावली" नामक ग्रंथ में इसका उल्लेख मिलता है।
स्थितिस्थापकसंस्कारः क्षितिः क्वचिच्चतुर्ष्वपि।
अतीन्द्रियोसौ विज्ञेयः क्वचित् स्पन्देऽपि कारणम् ।।
अर्थात् -
ठोस या द्रव्य के अन्य प्रकार के द्रव्यों में उत्पन्न अदृश्य बल ही, स्पन्दन (vibration) का कारण है।
जल चक्र (Water wheel) :-
भास्कराचार्य (1114 ई.) में अपने ग्रंथ "सिद्धांत शिरोमणि" के गोलाध्याय के यंत्राध्याय के श्लोक 53 से 56 तक water wheel का वर्णन है।
ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य। - 53
एक कुण्डजलान्तर्द्वितियमग्रं त्वधोमुखं च बहिः
युगपन्मुक्त चेत् क नलेन कुण्डाब्दहिः पतति। - 54
नेम्यं बद्धवा घटिकाश्चक्रं जलयंत्रवत् तथा धार्यम्
नलचकप्रच्युतसलिलं पतति यथा तदघटी मध्ये। - 55
भ्रमति ततस्तत् सततं पूर्णघटीभिः समाकृष्टम्
चक्रच्युतं तदुदकं कुण्डे याति प्रणालिकया ।-56
अर्थात् —
ताम्र आदि धातु से बना हुआ, अंकुश के तरह मोड़ा हुआ एवं पानी से भरा तल का एक अन्त को जल पात्र में डुबा कर और दूसरा अन्त को बाहर अधोमुख करके अगर दोनों अन्त को एकसाथ छोड़ेंगे तब पात्रस्थ जल सम्पूर्ण रूप से नल के द्वारा बाहर जायेगा। चक्र की परिधि में घटिकाओं को (जल पात्रों को) बांधकर, जल यंत्र के समान, चक्र के अक्ष के दोनों अन्त को उस प्रकार रखना चाहिए जैसे नल से गिरता हुआ पानी घटिका के भीतर गिरे। इस से वह चक्र पूर्ण घटियों के द्वारा खींचा हुआ निरंतर घूमता है और चक्र से निकला हुआ पानी नाली के द्वारा कुण्ड में चला जाता है।
यंत्रों के साधन व कार्य
यंत्र के मुख्य साधनों का वर्णन "यंंत्रार्णव" नामक ग्रंथ में किया गया है।
दंडैश्र्चक्रैश्र्च दंतैश्र्च सरणिभ्रमणादिभिः।
शक्तेरुत्पादनं किं वा चालनं यंत्रमुच्यते।।
- यंंत्रार्णव
अर्थात् —
यंत्र एक ऐसी युक्ति है जिसका मुख्य कार्य :-
दंड (Liver) - उच्चाटन (stirring)
चक्र (Pulley) - वशीकरण (centraling motion)
दंत (Toothed wheel) - स्तंभन (stopping)
सरणि (Inclined plane) - जारण (bringing together)
भ्रमण (Screw) - मारण (annihilation)
जोकि शक्ति उत्पन्न करने के लिए तथा दिशा परिवर्तन के लिए आवश्यक है।
यंत्र के तीन भाग होते हैं —
(1) बीज - कार्य उत्पन्न करना
(2) कीलक - the pin joining power and work
(3) शक्ति - कार्य करने की क्षमता
इस प्रकार यंत्र अपने तीन भाग, पाँच साधनों तथा उनके द्वारा होने वाली क्रियाओं से गतिमान होता है —
इससे विविध प्रकार की गति उत्पन्न होती है —
तिर्यगूर्ध्वमधः पृष्ठे पुरतः पार्श्वयोरपि
गमनं सरणं पात इति भेदाः क्रियोद्भवाः।।
- समरांगण - अ- 31
विविध कार्यों की आवश्यकतानुसार विविध गति होती है जिससे कार्य सिद्ध होता है —
(1) तीर्यक - slanting
(2) ऊर्ध्व - upwards
(3) अधः - downwards
(4) पृष्ठे - backwards
(5) पुरतः - Forwards
(6) पार्श्वयोः - sideways
किसी भी यंत्र के मुख्य गुण क्या क्या होन चाहिए, इसका वर्णन समरांगण सूत्रधार में करते हुए पुर्जों के परस्पर सम्बन्ध, चलने में सहजता, चलते समय विशेष ध्यान न देना पड़े, चलने में कम ऊर्जा का लगना, चलते समय ज्यादा आवाज़ न करें, पुर्जे ढीले न हो, गति कम ज्यादा न हो, विविध कामों में समय संयोजन निर्दोष हो तथा लंबे समय तक काम करना आदि प्रमुख 20 गुणों की चर्चा करते हुए ग्रंथ में कहा गया है कि —
चिरकालसहत्वं च यंत्रस्यैते महागुणाः स्मृताः
- समरांगण - अ- 3
हाइड्रोलिक मशीन (Turbine) :-
जलधारा के शक्ति उत्पादन में उपयोग के संदर्भ में "समरांगण सूत्रधार" ग्रंथ के 31 वें अध्याय में कहा है —
धारा च जलभारश्च पयसो भ्रमण तथा।।
यथोच्छ्रायो यथाधिक्यं यथा नीरंध्रतापि च ।
एवमादीनि भूजस्य जलजानि प्रचक्षते।।
अर्थात् —
बहती हुई जलधारा का भार वेग का शक्ति उत्पादन हेतु हाइड्रोलिक मशीन (Turbine)में उपयोग किया जाता है। जलधारा वस्तु को घुमाती है और ऊँचाई से गिरे तो उसका प्रभाव बहुत होता है और उसके भार व वेग के अनुपात में घूमती है। इससे शक्ति उत्पन्न होती है।
सङ्गृहीततश्च दत्तश्च पूरितः प्रतिनोदितः ।
मारुद बीजत्वमायाति यंत्रेषु जलजन्मसु।।
- समरांगण - अ- 31
अर्थात् —
पानी को संग्रहित किया जाय, उसे प्रवाहित और पुनः क्रिया हेतु उपयोग किया जाए, यह मार्ग है जिससे बल का शक्ति के रूप में उपयोग किया जाता है।
। मानस-गणित (Vedic- Ganit) ।।
(Person after Perfection becomes Personality)
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