[( पुष्पिताधिकारी)]
"।। विद्वतम् च नृपम् च नैव तुल्यम् कदाचन्।
स्वदेशे राजा पुज्यते विद्वानम् सर्वत्र पुज्यते।।"
कइ बार मैं इस बात से परेशान हो उठता हूँ कि समाज के लिए क्या करना हितकर है व्यक्ति पुजा या व्यक्तित्व पुजा। भारत ऋषि-मुनियों का देश रहा है जहाँ ज्ञान की पुजा होती आई है, ज्ञानियों तथा जिज्ञासुओं को हमारे समाज ने सदा सम्मानित किया है परन्तु आज हमारे समाज में व्यक्तित्व पुजा के स्थान पर व्यक्ति पुजा हावी हो गई है। हम अपने देशवासियों के ज्ञान को अहमियत नहीं देते हैं, अमेरिका तथा अन्य युरोपीय देशों ने हमारे देश के अनेक क्षेत्रों के सर्वश्रेष्ठ छात्रों तथा शोधार्थियों को ज्यादा धन तथा सुविधाओं का लालच देकर अपने देशों में स्थान देते हैं। दूसरी तरफ हम इस बात का इन्तजार करते हैं कि जब अमेरिका तथा अन्य युरोपीय देश हमारे ज्ञान तथा ज्ञानियों को प्रमाणित करें उसके बाद हम अपने लोगों के सामर्थ्य का सम्मान करना शुरू करते हैं। स्वामी विवेकानंद के ज्ञानी होने में किसी को कोई संदेह नहीं परन्तु हम उन्हें सम्मान तब दिया जब अमेरिका तथा अन्य युरोपीय देशों ने उन्हें सम्मानित किया, ऐसा ही कुछ गोवर्धन पीठ, पूरी (उड़ीसा) के जगद्गुरु शंकराचार्य श्री भारती कृष्ण तीर्थ जी महाराज के साथ हुआ इत्यादि न जाने कितने ज्ञानियों को अपमान सहना पड़ा। १००० वर्षों के गुलामी ने हमारे देशवासियों के मन मस्तिष्क को इतना कुंठित कर दिया है कि आज आजादी के ६५ साल बाद भी हम मानसिक गुलामी के दौर से गुजर रहे हैं इसके लिए हमारे ही देश के कुछ लालची तथा अंग्रेज़ीयत में विश्वास रखने वाले लोग ही जिम्मेदार हैं। हमें पहले भी अपनो ने ही लुटा था तथा आज भी अपने ही....। अब वक्त आ गया है कि हमें मानसिक गुलामी के पिंजरे से बाहर आ कर स्वच्छंद आकाश में अपनी स्वतंत्रता की अनुभूति करने की आवश्यकता है तथा अपने देश तथा देशवासियों के सामर्थ्य को पहचान कर उन्हें प्रोत्साहित तथा सम्मानित करने की आवश्यकता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत से अपने आने वाली पीढ़ियों पहचान कराने की आवश्यकता है ताकि उन्हें अपने पूर्वजों पर गर्व हो सके तथा भविष्य के निर्माण में अपना योगदान दे सकें। अतः हमें अपने देश में ज्ञान तथा ज्ञानियों को उचित सम्मान सबसे पहले देने की आवश्यकता है ताकि हम अपने देश का नाम "भारत" को सार्थक सिद्ध कर सकें।
सधन्यवाद
अनिल ठाकुर