।। आधुनिक विकास - वाकई, या विनाश।।
क्या आपने कभी सोचा है कि भारतीय संस्कृति आखिर अबतक क्यों बची हुयी है ?
हजारों वर्ष पहले मिस्र में ऊँचे ऊँचे पिरामिड बनाए गए, उनकी तकनीक बेहद विकसित थी, बड़े बड़े शहर थे उनके लेकिन सब नष्ट हो गए।
इसी तरह यूनान में बड़े बड़े विकसित शहर हजारो वर्ष पहले थे। उनके आलीशान महल विशाल क्रीडा स्थल और बहुत वैज्ञानिक ढंग से बने शहर आज भी तकनीकी का कमाल माने जाते हैं, लेकिन सब नष्ट हो गए।
कुछ ऐसा ही था माया सभ्यता के साथ, माया सभ्यता के बचे हुए अवशेषों और उनके निर्माणों को देखकर ऐसा लगता है कि उनकी स्थापत्य कला बेहद कुशल और वैज्ञानिक थी लेकिन उनके भी कोई निशान ना बचे, वो भी समाप्त हो गये।
मेसोपोटामिया जैसी सभ्यताओं का तो कुछ ख़ास अवशेष भी ना बच पाया सिर्फ वही मिले जो खुदाई के पश्चात् प्राप्त हुए।
यही कहानी प्राचीन रोम की भी है। सिन्धु घाटी में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो में हजारो वर्ष पहले बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से विकसित शहर थे लेकिन वे भी नष्ट हो गए।
इन सब सभ्यताओं के समाप्त होने और मिट जाने के बावजूद भी धरती पर भारतीय सभ्यता बची रही है जो आज भी जीवंत है।
इसका कारण है हमारे पास ऐसे महाविद्वान परम तपस्वी ऋषि मुनि थे जिन्हें सृष्टि का रहस्य ज्ञात था। उन्हें अच्छे से इसका पता था कि, भौतिक चीजें इस धरती पर ज्यादा दिन नहीं टिक सकती हैं।
हमारे पूर्वज बेहद साधारण प्रकार से वनों में जीवन गुजारते थे, बिना प्रकृति को नष्ट किये।यहाँ निवास करते हुए भी वे विज्ञान के बड़े से बड़े रहस्य सुलझाते थे।
चाहते तो वे भी आलीशान ऊँची इमारतो में वातानुकूलित प्रसादों में रह सकते थे, लेकिन उन्होंने प्रकृति के साथ जीना ही स्वीकार किया।
ऐसा ऋषियों की संस्कृति नष्ट नहीं हुई, आज भी जीवित है। अनेकों वनवासी प्रजातियाँ लाखों वर्षों से अपने आपको बचाए हुए है।
ये भारतीय संस्कृति है जहाँ प्रकृति की पूजा की जाती है, जहाँ पेड़ों में देवताओं का वास माना जाता है, लोग नदियों को माँ मानते हैं, सूर्य चन्द्रमा और अन्य ग्रहों की उपासना करते हैं।
प्रकृति के इतने करीब रहने और भौतिकता से दूरी बनाये रखने के कारण ही भारत आज भी जीवंत है।
आज यह सोचने का विषय है कि, जब भौतिकता को बढावा देने वाली इतनी सभ्यताएं मिट गईं तो क्या प्रकृति को नष्ट करके अपनी हवस पूरी करने के लिए आज मानव जो अंधाधुंध विकास कर रहा है, क्या वो बहुत समय टिक पायेगा ?
उपरोक्त विषय पर चिन्तन करने से यह ज्ञात होता है कि हमें विकास की नई परिभाषा की आवश्यकता है तथा हमें अपने शब्दकोश में सुधार की जरूरत है क्योंकि यदि आपको अपने प्राचीन धरोहर को पूर्णतः समझना है तो शब्दकोश में सुधार अतिआवश्यक है तथा हमें विनाश तथा विकास की नई परिभाषा समझने की आवश्यकता है क्योंकि जिस गति से आज प्रकृति का दोहन किया जा रहा है तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जा रहा है उस गति से अधिक से अधिक पचास से सौ साल ही समय हमारे पास है....
आज जो पर्यावरण संरक्षण की बातें हो रही है वह मात्र छलावा है जिसका पर्यावरण संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है.... यह सब प्रयास राजनीतिक, व्यापारिक तथा आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है।
कुछ ज्ञानियों का मानना है कि वेदों की ओर लौटो परन्तु वेदों को समझने वाला शब्दकोश तथा समझाने वाला गुरु दोनों ही विलुप्त प्राय हो गये हैं।
आवश्यकता है आत्मीय प्रयास की जो मानव में मानवता का भाव भर दे।
सधन्यवाद
अनिल ठाकुर।