।। वराह मिहिर।।
(जन्म-ईस्वी 499- मृत्यु ईस्वी सन् 587) :वराह मिहिर का जन्म उज्जैन के समीप कपिथा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम आदित्यदास था। उन्होंने उनका नाम मिहिर रखा था जिसका अर्थ सूर्य होता है, क्योंकि उनके पिता सूर्य के उपासक थे। इनके भाई का नाम भद्रबाहु था। पिता ने मिहिर को भविष्य शास्त्र पढ़ाया था। मिहिर ने राजा विक्रमादित्य द्वितीय के पुत्र की मृत्यु 18 वर्ष की आयु में होगी, इसकी सटीक भविष्यवाणी कर दी थी।
राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने बुलाकर उनकी परीक्षा ली और फिर उनको अपने दरबार के रत्नों में स्थान दिया। इस तरह विक्रमादित्य द्वितीय के नौ रत्न हो गए थे। मिहिर ने खगोल और ज्योतिष शास्त्र के कई सिद्धांत को गढ़ा और देश में इस विज्ञान को आगे बढ़ाया। इस योगदान के चलते राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान 'वराह' प्रदान किया था। उसी दिन से उनका नाम वराह मिहिर हो गया।
योगदान :-
वराह मिहिर ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को सिद्धांत, संहिता तथा होरा के रूप में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया। इन्होंने तीनों स्कंधों के निरुपण के लिए तीनों स्कंधों से संबद्ध अलग-अलग ग्रंथों की रचना की। सिद्धांत (गणित)-स्कंध में उनकी प्रसिद्ध रचना है- पंचसिद्धांतिका, संहितास्कंध में बृहत्संहिता तथा होरास्कंध में बृहज्जातक मुख्य रूप से परिगणित हैं।
कुतुब मीनार को पहले विष्णु स्तंभ कहा जाता था। इससे पहले इसे सूर्य स्तंभ कहा जाता था। इसके केंद्र में ध्रुव स्तंभ था जिसे आज कुतुब मीनार कहा जाता है। इसके आसपास 27 नक्षत्रों के आधार पर 27 मंडल थे। इसे वराह मिहिर की देखरेख में बनाया गया था।
अज्ञात बल :आर्यभट्ट के प्रभाव के चलते वराह मिहिर की ज्योतिष से खगोल शास्त्र में भी रुचि हो गई थी। आर्यभट्ट वराह मिहिर के गुरु थे। आर्यभट्ट की तरह वराह मिहिर का भी कहना था कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद 'न्यूटन' ने इस अज्ञात बल को 'गुरुत्वाकर्षण बल' नाम दिया।
खगोलीय गणित और फलित ज्योतिष के ज्ञाता वराह मिहिर का ज्ञान 3 भागों में बांटा जा सकता है- 1. खगोल, 2. भविष्य विज्ञान और 3. वृक्षायुर्वेद। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'वृहत्संहिता' तथा 'पंचसिद्धांतिका' हैं। उन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक नामक ग्रंथ भी लिखे हैं।
वृहत्संहिता :वृहत्संहिता में नक्षत्र-विद्या, वनस्पतिशास्त्रम्, प्राकृतिक इतिहास, भौतिक भूगोल जैसे विषयों पर वर्णन है। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन निर्माण कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि विषय भी सम्मिलित हैं।
पंचसिद्धांतिका :पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित 5 सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं- पोलिश, रोमक, वसिष्ठ, सूर्य तथा पितामह। वराहमिहिर ने इन पूर्व प्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से बीज नामक संस्कार का भी निर्देश किया है।
गणितीय योगदान :-
(1) त्रिलोष्टक प्रस्तार (Triloshtaka Prastar) :- किसी भी द्विघात बहुपद के nवें घात (x + y)ⁿ के विभिन्न पदों के गुणक प्राप्त करने के लिए त्रिलोष्टक विधि दिया जिसे बाद में मेरु-प्रस्तार तथा वर्तमान आधुनिक गणित में पास्कल ट्रैंगल के नाम से जाना जाता है।
उन्हीं की सूत्रों को आधार बनाकर जैन गणितज्ञों ने यह सूत्र दिया —
C (n r) = n (n-1)(n-2)(n-3).... (n-r+1) / r!
उन्होंने C(n r) को इस प्रकार लिखा -
1
1 1
1 2 1
1 3 3 1
1 4 6 4 1
1 5 10 10 5 1
(2) त्रिकोणमिति (Trigonometry) :- वराहमिहिर ने आर्यभट्ट प्रथम द्वारा दिए गए Sine टेवल को और अधिक सटीक (accurate) बनाया जिसमें वराहमिहिर ने त्रिज्या R = 120' लिया जबकि आर्यभट्ट प्रथम ने त्रिज्या R = 3438' लिया था। उन्होंने त्रिकोणमिति के कई सूत्र दिए जो आधुनिक संकेतों के आधार पर इस प्रकार है —
(i) Sin X = Cos (90° - X)
(ii) Sin²X + Cos²X = 1
(iii) (1- Cos²X) / 2 = Sin²X
(3) खगोल शास्त्र (Astronomy) :- खगोल शास्त्र में विषुव (equinox) समय के उस क्षण को कहते हैं जिसके आधार पर किसी खगोलीय निर्देशांक प्रणाली (celestial coordinate system) के तत्वों की परिभाषा की जाती है। इसका मान वराहमिहिर ने 50.32 चाप सेकेन्ड (arc second) लिया जो आधुनिक मान 50.29 चाप सेकेन्ड (arc second) के काफी सन्निकट है। उन्होंने यह परीक्षण किया कि सूर्य के श्वेत प्रकाश सात रंगों से बना है तथा इन्द्रधनुष जैसी खगोलीय घटना का भी विश्लेषण किया। उन्होंने सूर्य ग्रहण तथा चंद्र ग्रहण आदि घटनाओं का भी विश्लेषण किया। एक साल में 365 दिन, 14 घटिका तथा 48 पल होत है यह भी उन्ही की खोज का हिस्सा है।
(4) जादूई वर्ग (Magic Square) :- वराहमिहिर ने 4 × 4 के जादुई वर्ग पर कार्य किया जिसमें सभी स्थिति में संख्याओं का योग 18 है जिसे उन्होंने "सर्वतोभद्रा" नाम दिया।
भारतीय गणित तथा ज्ञान-विज्ञान को समृद्ध करने में वराहमिहिर का योगदान अतुलनीय है।